अपने स्वामी जी

स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण जीवन

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जन्म
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इन्होंने 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्म लिया था। बचपन में इन्हें नरेन्द्र नाथ दत्त के नाम से जाना जाता था।इनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे और माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। इन्होंने अपने घर-परिवार को 25 वर्ष की उम्र में त्यागकर एक साधु का जीवन जीने का निश्चय किया।

बचपन
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बालक नरेंद्र बचपन से ही प्रखर बुद्धि के थे। अपने दोस्तों के साथ मिलकर खूब शरारतें भी किया करते थे। धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में पल रहे बालक नरेन्द्र के मन में धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार बचपन से पड़ रहे थे । उनके जीवन की एक घटना में जब वे एक दिन अपने दोस्तों के साथ सबसे अधिक समय तक ध्यान लगाए रखने का खेल खेल रहे थे, तभी वहां एक कोबरा आ गया।सारे दोस्त तो भाग गए लेकिन नरेन्द्र वहीं पर ध्यान में मग्न रहे। इसके  बाद जो हुआ वो आश्चर्य से भरा हुआ था। सर्प बालक नरेंद्र को देखता रहा। फिर देखते-देखते अपने आप ही दूर चला गया। माता-पिता के दिए संस्कारों का असर बालक नरेंद्र के मन में बचपन से ही रहा। साथ ही ईश्वर को जानने की उत्सुकतावश वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे जिनसे इनके माता-पिता और सुनने वाले सभी आश्चर्य में पड़ जाते थे।

शिक्षा
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पढ़ाई में बढ़ते रुझान को देखते हुए विवेकानंद जी के पिता ने सन् 1871 में आठ साल की उम्र में उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में कराया। उनकी ख़ास रूचि हमेशा दर्शन-शास्त्र, धर्म-शास्त्र, इतिहास-शास्त्र, कला, सामाजिक विज्ञान, और साहित्य जैसे विषयों में थी। आज करोड़ों युवाओं की प्रेरणा बनें विवेकानंद भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण लेने के साथ-साथ नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भी भाग लेते रहते थे। नरेंद्र ने जनरल असेम्बली संस्थान में रहकर वेस्टर्न फ़िलॉसफ़ी और यूरोपीय इतिहास का सम्पूर्ण अध्ययन किया।1884 में कला से ग्रेजुएट डिग्री हासिल की।

गुरु के प्रति निष्ठा
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गुरु के प्रति जो प्रेम भाव स्वामी विवेकानंद रखते थे, उसे एक उदहारण के तौर पर लिया जाना चाहिए। उन्होंने अपना पूरा जीवन अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया था। गुरु के शरीर-त्याग के दिनों में स्वयं की भोजन आदि की चिन्ता किये बिना वे अंतिम क्षणों तक गुरु की सेवा में लगे रहे।

सामाजिक योगदान
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स्वामी विवेकानंद ने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में जो काम किए उनसे आने वाली तमाम पीढ़ियों का मार्गदर्शन होता रहेगा। वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। उनका विश्वास था कि भारत धर्म, दर्शन, संन्यास एवं त्याग की पुण्यभूमि है। विवेकानन्द ने एकला चलो की नीति अपनाते हुए विश्व भ्रमण किया।वास्तव में उनको ऐसे युवाओं की तलाश थी जो पूरे भारत के ग्रामों में घूमकर सभी देशवाशियों की सेवा में जुट जाएं। उस दौर में रूढ़िवाद चरम पर था किन्तु विवेकानन्द जी धार्मिक आडम्बरों और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित की। जहाँ अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्य बनना स्वीकार किया, इस बात को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में माना जाना चाहिए। वे स्वयं को गरीबों का सेवक कहते थे। उन्होंने भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में पहुँचाने का सदैव प्रयत्न किया।

यात्रायें
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25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा आरंभ करने का निश्चय किया। 31 मई 1893 को जापान के कई शहरों का दौरा करते हुए चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुँचे। उस दौरान वहाँ विश्व धर्म सम्मलेन चल रहा था। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे थे। क्योकिं भारत देश उस वक्त स्वतंत्र नहीं था जिसके कारण यूरोप और अमेरिका के लोग भारतीयों को बहुत ही हीन दृष्टि देखते थे। उस सभा में मौजूद लोगों ने बहुत कोशिश की कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म सम्मलेन में बोलने ही न दिया जाए। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें अपनी बात रखने का थोड़ा समय दिया गया। सम्मलेन का हिस्सा बने हुए लोगों ने जब विवेकानंद जी के विचारों को सुना तो सभी चकित रह गए। उनके वक्तव्य, शैली व ज्ञान को देखते हुए अमेरिकी मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू के नाम से नवाज़ा।

मृत्यु
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उनके शिष्यों ने बताया के स्वामी जी अपने जीवन के अंतिम दिनों तक उन्होंने अपनी दिनचर्या में कोई बदलाव नही किया। 4 जुलाई सन 1902 को भी हमेशा की तरह प्रातः दो घंटे ध्यान में लीन रहे और ध्यानावस्था में रहते ही महासमाधि प्राप्त कर ली। उनकी अंत्येष्टि बेलूर में गंगा के तट पर की गयी। संयोगवश सोलह वर्ष पहले ठीक उसी तट के दूसरी तरफ उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का भी अन्तिम संस्कार हुआ था।

स्वामी जी के अनमोल विचार
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  • किसी महान कार्य को करने के लिए महान त्याग भी करने पड़ते हैं।
  • मनुष्य की सेवा को ही ईश्वर की सच्ची सेवा मानना चाहिए।
  • यदि आप समय के पाबंद हैं तो लोग आप पर निश्चित रूप से विश्वास करेंगे।
  • आपका किया गया संघर्ष जितना कठिन होगा, आपकी प्राप्त की गई जीत भी उतनी ही शानदार होगी।
  • वे लोग धन्य हैं जो दूसरों की सेवा में अपना शरीर तक नष्ट कर देते हैं।
  • अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उठो, जागो और तब तक ना रुको जब तक लक्ष्य ना हासिल हो जाए।
  • आपका सर्वोत्तम शिक्षक आपका स्वयं का अनुभव ही है। इसलिए जब तक जीवन है सीखते रहो, अनुभव लेते रहो।
  • हज़ारों ठोकरें खाने के बाद ही एक उत्तम चरित्र का निर्माण होता है।
  • जब भी लोग आपको अपशब्द कहें तब आप उनके लिए अच्छी कामना ही करें।
  • व्यस्त होने पर सब कुछ आसान लगता है, आलसी होने पर सब कठिन लगता है, इसलिए स्वयं को सदैव अच्छे कामों में व्यस्त रखें।
पूरा लेख पढने के लिए आपका धन्यवाद। 

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