ब्राम्हण -- गौत्र प्रवर और अन्य की जानकारी*
_ब्राह्मणों के लिए अतिआवश्यक_
*कुछ समय से देख कर अत्यंत क्षोभ हुआ कि हमारी पीढ़ी आज गौत्र, आस्पद तक कि जानकारी से बहुत दूर है। ब्राह्मण है तो अपनी जड़ें मजबूती से पकड़ कर रखिए, और आने वाली पीढ़ी को अवश्य बताइए। जिससे ब्राह्मण का अस्तित्व बना रहे। ॐ*
*ब्राम्हण -- गौत्र प्रवर और अन्य की जानकारी*
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
अतीत का इतिहास हमें अपना मनोबल बढ़ाने में सहयोग करता है, इसी प्रकार हमारी जड़ें कहां है यह जानना आवश्यक है। पूजा में संकल्प दिलाए जाने पर पंचतत्व अग्रि, पृथ्वी, आकाश, वायु और जल को साक्षी मान कर सभी इष्टदेव को पूजा में आमंत्रित किया जाता है। संकल्प का अर्थ हम इष्टदेव और स्वयं को साक्षी मानकर निश्चित योजन के कार्य हेतु कि यह पूजन कर्म किस इच्छा की पूर्ति के लिए कर रहे हैं।
क्या आप अपने पिता के नाम का और आस्पद (सरनेम) का प्रयोग नहीं करते स्वमं की आप अमुक के पुत्र है ठीक उसी तरह यही आप उपनाम में गर्व नहीं करते? इसका अर्थ आपको पता होना ही चाहिए यदि आपको नही पता तो आप उपनाम (गोत्र नाम) लगाने का अधिकार नही रखते। यही आपको नही पता कि आप किस ब्राम्हण कुल और किस ऋषि परम्परा के वाहक है तो माफ कीजिये आप इस योग्य नही की आप ब्राम्हण कहे जाए।
वामपंथ का एक और षड्यंत्र शुरू हो चुका है कि जाति छोड़ो हिन्दू बनो। सनातनी वर्ण्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अंग्रेजों ने हमारे विरूद्ध षड्यंत्र में सबसे पहले हमारे सूचक (चोटी, तिलक, पहनावा) छुड़वाया, इस पर हास्य किया, आर्य बाहर से आए, आर्य - द्रविड़, वेदों में मांस, मनुस्मृति में प्रक्षेपण जैसे अनेकों षडयंत्रों से सनातनी प्रथा को नष्ट करके ईसाई बनाने की योजना बनाई। हमारी इन्हीं मजबूत जड़ों के कारण नहीं तोड़ पाए, हम अपना अस्तित्व बचा सके इसका मुख्य कारण हमारी मजबूत जड़ें है। जाति (caste) हमारा शब्द ही नहीं है। आगे के लेख में….. !
अब सवाल ये उठता है कि ब्राम्हण की पहचान कैसे क्योंकि आजकल चोरो की संख्या ज्यादा है जो उपनाम तक चुरा के ब्राम्हण बने हुए है उनकी पहचान के लिए आप एकादश परिचय को माध्यम बना सकते है हर ब्राम्हण का एक एकादश परिचय होता है बिना एकादश परिचय के वो अस्तित्वहीन है या आप ये कह सकते है कि वो चोर है उपनाम का जो ब्राम्हण बना तो है लेकिन ब्राम्हण है नही ।।
1 - *गोत्र* --
गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।
विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां
यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है।
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।
गोत्र शब्द एक अर्थ में गो अर्थात् पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जात (जाति नहीं) की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है ।।
2 - *प्रवर* --
प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ"। अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्त की गई श्रेष्ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥
अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न पंचातिवृणीते॥
3 - *वेद* --
वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है, इनको सुनकर याद किया जाता है, इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्यासी कहलाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण का कम से कम अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है। आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्तन, व्याख्यादि के अध्ययन एवं वंशानुगत निरन्तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।
वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।
ब्राम्हण जन्म से श्रेष्ठ कर्म से? यह चर्चा अब दुखदाई गई है। कर्म सदैव श्रेष्ठ होना चाहिए, किन्तु आज संविधान के समय में किसी को कर्मणा से ब्राह्मण या दलित नहीं बनाया जा सकता। अतः कर्मणा, जन्मना के कुतर्क से इतर रहना श्रेष्ठ है। किंतु ब्राह्मण का पहला धर्म है कि ब्राह्मणोचित कार्य करे ना की विजातियों की भांति। ब्राह्मण चांडाल होने से बचें। ल
यदि आप जन्म को वरीयता देते है तो आपको खुद के जन्म कुल का पूरा भान होना चाहिए यदि नही है तो आप खुद को श्रेष्ठ जन्म के आधार पर बोलना बन्द कीजिये।
4. *उपवेद* --
प्रत्येक वेद से सम्बद्ध ब्राम्हण को विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये। वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्नति का मार्ग बतलाने वाले शास्त्र का नाम उपवेद है। उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है। जैसे-
धनुर्वेद - विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।
गन्धर्ववेद - भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।
आयुर्वेद - धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।
स्थापत्य - विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।
5. *शाखा* --
वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
प्रत्येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे --
ऋग्वेद की 21 शाखा (प्रयोग में 5 शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन) ,
यजुर्वेद की 101 शाखा( प्रयोग में 5 काठक, कपिष्ठल, मैत्रियाणी, तैतीरीय, वाजसनेय)
सामवेद की 1000 शाखा (सभी गायन, मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान)
अथर्ववेद की 9 शाखा (पैपल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या) है।
इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है। प्रत्येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्त शाखाओं को अल्पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्पन्न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई। जैसे पराशर गौत्र का शुक्ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्यन्दिनी) को प्रत्येक व्यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।।
6. *सूत्र* --
व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो, अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !
वेदानुकूल स्मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्थ भिन्न-भिन्न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्न-भिन्न सूत्र ग्रन्थ हैं।
ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं, आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है। सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।
7. *छन्द* -
प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परासम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए। छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं - वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है ।
अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9)
अतिजगती(ऋग्वेद 5.87.1)
अतिशक्वरी
अनुष्टुप
अष्टि
उष्णिक्
एकपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं)
गायत्री (प्रसिद्ध गायत्री मंत्र)
जगती
त्रिषटुप
द्विपदा विराट
धृति
पंक्ति
प्रगाथ
प्रस्तार पंक्ति
बृहती
महाबृहती
विराट
शक्वरी
8. *शिखा* --
अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है। शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है।
शिखा का चलन अब बहुत अल्प रह गया है, किन्तु जानकारी होनी आवश्यक है। परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है ।
9. *पाद* -
अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं। सामवेदियों का बायाँ पाद और इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है। इसका पता आप अपने बुजुर्गो से ही पूछ सकते है।
10. *देवता* -
प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता (गणेश, विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक) उनके आराध्य देव है । इसी प्रकार कुल के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें। इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों (माता-पिता आदि) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है। एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए -
(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी।
इसकी जानकारी के लिए अग्रज से लें। अन्य कोई देने में असमर्थ होगा।
11. *द्वार* -
यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।
यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है।
विशेष - यह सभी मिलाकर ब्राम्हण का पूर्ण एकादश परिचय बनाती है जो हर ब्राम्हण को जानकारी रखनी चाहिए ही चाहिए।
हर सनातनी के जेनेटिक मेटेरियल बहोत खास है क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी उनका जेनेटिक सेपरेशन किया गया है , भारत के किसी भी व्यक्ति को आप विश्व के किसी भी परिस्थितिक तंत्र में रख दीजिए वो सर्वाइव कर लेगा अन्य के साथ ऐसा नही है। आप आंकड़े निकाल के देख सकते है आपको सनातनियों में वंशानुगत बीमारियों का आंशिक अंश ही मिलेगा। इसमें कुछ भाग विद्वान आजेश्ठ त्रिपाठी के लेख से लिया गया है।
ग्रुप के आचार्यों से आग्रह करूंगा मार्गदर्शन करें।
*ब्राह्मण आस्पद क्या है?*
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
अध्यापन का कार्य – *उपाध्याय*
तांत्रिक – *ओझा, झा*
ज्योतिष ज्ञान – *जोशी*
तीन वेद - *त्रिपाठी, तिवारी*
दो वेद - *द्विवेदी, दुबे*
दीक्षा देने वाले – *दीक्षित*
शास्त्र विशेष को पढ़ाने – *पांडेय*
गांव के गुरु – *पुरोहित*
वेदाचार्य कथा वाचक – *पाठक*
शुद्ध उप जीवक – *शुक्ल, सुकुल*
राजा के गुरु – *रावल*
यज्ञ करने का कार्य - *यज्ञिक, बाजपेई*
अग्निहोत्र करने वाले - *अग्निहोत्री*
आस्पद का अर्थ जो सरनेम हम लगाते है। जैसे मेरा मिश्रा। सभी आस्पद का एक संदेश है, कार्य करने की विधा से परिचय कराता है। हमारे पूर्वजों को को कार्य मिला उसके अनुसार आस्पद मिले। मिश्र श्रुति और स्मृति दोनों में परिपक्व थे इसलिए मिश्र अर्थात दोनों विधाओं के जानकारों को मिश्र कहा गया। बाद में मिश्रा हो गया।
इसमें भोजन बनाना, संगीत में रुचि, और अनेकों कार्यों के विशिष्टता रखते थे। अधिकांश मिश्रा के मुख्य वेद सामवेद होते है जिनको गाया जाता है। इसलिए मिश्र परिवार में गायन भी बहुलता से पाया जाता है।
जड़ों से जुड़े रहना आवश्यक है। यही ब्राह्मण की पहचान बनाए हुए है।
ॐ ॐ ॐ
प्रणाम
डॉ विजय मिश्रा
जयपुर
ॐ ॐ ॐ
Comments
Post a Comment